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तारीख-ए-फरिश्ता (मुहम्मद कासिम हिंदूशाह या फरिश्ता)

अलबरूनी ने अपने सबसे महत्त्वपूर्ण ग्रंथ ‘तारीख-उल-हिन्द’ में महमूद के भारत आक्रमण तथा उनके प्रभावों का वर्णन किया है। उसने हिन्दी धर्म, साहित्य तथा विज्ञान का भी सुन्दर वर्णन किया है। इस प्रकार इस ग्रंथ से महमूद के आक्रमणों तथा तत्कालीन सामाजिक स्थिति के बारे में जानकारी मिलती है। सुचारू रूप से इस ग्रंथ को अंग्रेजी में अनुवादित भी किया है। ताजुल-मासिर[संपादित करें]

बरनी ने उच्च वर्ग का मार्गदर्शन करने हेतु एवं फीरोज के समक्ष आदर्श उपस्थित करने हेतु इस ग्रंथ की रचना की। इस पुस्तक में शरीयत के अनुसार सरकार के कानूनी पक्ष का वर्णन है। इसमें मुस्लिम शासकों के लिए आदर्श राजनीतिक संहिता का वर्णन है। बरनी ने महमूद गजनवी को आदर्श मुस्लिम शासक माना है तथा मुसलमान सुल्तानों को उसका अनुकरण करने के लिए कहा है। बरनी कट्टर मुसलमान था, अतः उसने काफिरों का विनाश करने वाले को आदर्श मुस्लिम शासक माना है। उसने आदर्श शासन के लिए कुशल शासन प्रबंध भी आवश्यक बताया है। यदि बरनी के आदर्श शासक सम्बन्धी विचारों में से उसकी धर्मान्धता को निकाल दिया जाये, तो यह शासन प्रबंध में आदर्श सिद्ध हो सकते हैं।

यह अरबी भाषा में लिपिबद्ध है। इससे मुहम्मद-बिन-कासिम से पहले तथा बाद के सिन्ध के इतिहास का ज्ञान होता है। इसका फारसी भाषा में भी अनुवाद किया गया है। इसके click here लेखक अली अहमद हैं। तहकिकात-ए-हिन्द (किताब-उल-हिन्द)[संपादित करें]

अलाउद्दीन खिलजी के बाजार नियंत्रण व्यवस्था का सबसे प्रामाणिक विवरण बरनी की तारीख-ए-फिरोजशाही में ही मिलता है। अलाउद्दीन खिलजी की बाजार व्यवस्था के संबंध में बरनी ने लिखा है कि हिंदू और काफिर वस्तुओं की चोरी करते थे। प्रसंगतः, इब्नबतूता की रचना ‘रेहला’ तथा अमीर खुसरो के ‘खजाइनुल फुतुह’ से भी अलाउद्दीन के बाजार नियंत्रण के विषय में जानकारी मिलती है। मुहम्मद बिन तुगलक की मुद्रा-व्यवस्था का वर्णन करते हुए बरनी ने लिखा है कि, ‘प्रत्येक हिंदू का घर टकसाल बन गया था।’

वास्तव में, अमीर खुसरो भारतीय परंपरा और परिवेश से बहुत प्रभावित था और उसने इस्लामी परंपराओं को भारतीय विरासत के अंदर समाहित करने का प्रयास किया। उसने दो विभिन्न संस्कृतियों, दो विभिन्न धार्मिक विश्वासों और परंपराओं में परस्पर सौहार्द, प्रेम और सामंजस्य का वातावरण तैयार करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। भारतीय गायन में क़व्वाली और वाद्ययंत्र सितार को खुसरो की देन माना जाता है। उन्होंने पखावज को दो भागों में विभाजित करके तबले का भी अविष्कार किया। अबुल फजल के अनुसार खुसरो ने ही कौल और तराना का आविष्कार किया था। खुसरो ने अपने संगीत को ‘संगीत-ए-निंगारी’ के रूप में वर्णित किया है। ईरान के फारसी कवि अर्फी तथा शिराज़ी ने खुसरो को ‘तूती-ए-हिन्द’ के नाम से संबोधित किया है।

तुजुक-ए-बाबरी में बाबर ने यहाँ की भौगोलिक स्थिति, जलवायु, नदियों, राजनीतिक स्थिति, पहाड़ों, नदियों, जंगलों, वनस्पतियों और जीव, पेड़ और फूल, जनता के पहनावे, भोजन और रहने की स्थिति आदि का विस्तार से वर्णन किया है। बाबरनामा हुमायूँ के शुरू के शासन के लिए भी प्राथमिक स्रोत है।

इसके बाद उस गद्दी पर उसी का दामाद अल्लाउद्दीन खिल्जी शासक बना।

के बीच की हुई थी। यद्यपि पृथ्वीराजविजयमहाकाव्यम् में पृथ्वीराज चौहान की प्रशंसा की गई है, किंतु इस ग्रंथ से चाहमानों की उत्पत्ति, वंशावली और अन्य अनेक महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ भी मिलती हैं।

यद्यपि अलबेरूनी का मुख्य उद्देश्य भारत के धर्मों और साहित्य तथा विज्ञान की परंपराओं के विषय में जानकारी प्राप्त करना था, किंतु उसने यहाँ के रीति-रिवाजों और अंधविश्वासों आदि का भी विस्तृत विवरण दिया है। अलबेरूनी के अनुसार भारत में परंपरागत चार जातियाँ थीं, किंतु परंपरागत जातियों से बाहर के लोग अत्यंज कहलाते थे। उसने आठ प्रकार के अंत्यजों (चांडालों) का भी उल्लेख किया है, जिनमें मोची, मछुआरे, शिकारी, टोकरी बनाने वाले, सड़क पर झाड़ू लगाने वाले आदि सम्मिलित थे। अलबेरूनी के अनुसार तत्कालीन समाज में ब्राह्मणों को विशेषाधिकार प्राप्त था और वैश्यों तथा शूद्रों की स्थिति में कोई अंतर नहीं था। यदि इनमें से किसी भी जाति के लोग पूजापाठ करते, तो राजा उनकी जीभ कटवा देता था। उसने वैश्य जाति की दशा में गिरावट, बालविवाह, सतीप्रथा और विधवाओं की स्थिति का भी वर्णन किया है। अलबेरूनी के अनुसार भारत में अंतर्जातीय विवाह नहीं होते थे और विधवाओं का मुंड़न कर दिया जाता था। उसने भारतीयों की, विशेषकर पवित्र स्थानों पर तालाबों तथा जल-संग्रहण के कार्यों में प्रवीणता की प्रशंसा की है।

अल्बेरूनी के अनुसार भारतीयों को अपनी विद्या पर बड़ा अभिमान था। उसने लिखा है कि, ‘हिंदुओं को अपने सिवा और लोगों का कुछ भी ज्ञान नहीं है। उनका यह पक्का विश्वास है कि हमारे देश के सिवा संसार में और कोई देश नहीं है और न कोई दूसरी जाति इस संसार में बसती है, और न हमारे सिवा और किसी के पास कोई विद्या है। खुरासान या फारस के किसी विद्वान् का यहाँ तक कि जब उनका नाम बताया जाता है, तब वे उस नाम बतानेवाले को मूर्ख और अयोग्य समझते हैं।’ वह लिखता है कि, ‘यदि ये लोग दूसरी जातियों से मिलें जुलें, तो उनका यह भ्रम दूर हो सकता है।’ अल्बेरूनी ने पुनः लिखा है कि, ‘पुराने समय के हिंदू पंडित ऐसे नहीं थे। वे दूसरी जातियों से भी लाभ उठाने में कमी नहीं करते थे।’

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